मुझ कमली को ये रोग कैसा हो गया !!
जब से हुई ये अखियाँ चार
है गुस्ताखी इन अखियों की
न जाने कब सजा लिया, तेरा हरा भरा ख्याब !
आज हुआ ये सपना साकार
मेरा रोम रोम हर्षाया, चल उड़ चलिए गगन के उस पार !!
इस हरे भरे ख्याब के पूरा होने की
मांगी थी उस रब से मैंने दुआएँ !
शुक्रगुज़ार हूँ अपने रब की
जिसने मेरी आँखों में तेरे ख्याब सजाएं !!
देना मेरे यार को जीवन का हर मोड़ और भी खूबसूरत
ए मेरे परवर दिगार! न है बाकि इस दिल की कोई हसरत !
यही मेरा रोज़ा ,पाक इश्के की कमाई ही मेरी सच्ची दौलत !!
तुम्हें लगता है, तुम हो रहे हो मीलों मुझ से दूर
मैं तो हूँ तेरी परछाई, बस गयी हूँ बन तेरी आँखों का नूर !
तुझे खोने का डर नहीं, तुझमें खोने के एहसास का
रहता इस कमली को हर दम हर पल इक सरुर !!
तो क्यूँ मैं पालूँ, दूरी का डर
जब दिल में है तेरा
प्यार रूहानी भरपूर !
इस दिल का है बस इतना सा कसूर
तेरी याद में रहता हर वक़्त चूरों चूर !!
है अपना तो जन्म जन्म का साथ
तेरी खैर मांगने को ही
मेरे उठते ये दोनों हाथ !
बन हवा मैं तो हर पल तेरे संग चली
जब जब तू याद करें मैं आ जाऊँगी तेरी गली !!
पर सजाने को तेरा ये हरा भरा ख्याब न मैं कभी टली !!!
तुम सुनते रहों, मैं कहती चलूँ
तुम हसाते रहो, मैं हँसती चलूँ !
तेरे मेरे प्यार के आशियाने को
तेरे हरे भरे ख्याबों से सजाती चलूँ !!
जो तू मुझे कभी भूल भी गया
फिर भी तेरी ही ख्याब
फिर भी तेरी ही ख्याब
इन सांसों की बना तस्बीह ,
इस जिस्म को बना मसीती
इस जिस्म को बना मसीती
और यार को बना काबा
अपनी आखरी साँस तक
बस तेरी ही नमाज़ अदा कर सजाती चलूँ !!