Wednesday 26 September 2012

                          क्यूँ???
                          (1)
देख कर ज़माने का चलन, मन में उमड़े है कई सवाल ना जाने क्यूँ !
सीरत कायम रहती है ता-उम्र, तो लोग बदलती सूरत के पीछे भागते है क्यूँ !
                     
ना लगा पाया है कोई भी कीमत एक मुस्कान की,
फिर रस्मो रिवाजों के नाम पर इंसानों की कीमत आंकतें हैं क्यूँ!

जब कुदरत ने बेहिसाब बांटी हैं नियामतें!
तो दूसरे की थाली में झाँकतें हैं क्यूँ?

                          (2)
रूहानियत के एहसास चमड़ी और दमड़ी से परे है
तो इन एहसासों को नामी ख़िताब देना जरुरी है क्यूँ !

गर सच में होती रिश्तों की मोहर ज़रूरी! 
तो फिर राधा और मीरा के संग ही शाम बुलाये जाते है क्यूँ !

जो होती नियत नेक ना शबरी के इंतज़ार की
तो चुने  हुए उसके झूठे बेर राम मजे से खाते क्यूँ !
                         (3)
प्यार में होता है सदा देना ही देना सोचना भी नहीं कुछ है लेना
तिजारत के तराजू में इसे फिर तोला जाता है क्यूँ !

कल जो ना खरा उतरा उम्मीदों पे,
 आज जो मांगे गम बिना उम्मीदों के
ऐसे सच्ची प्रीत पर शक का हक़ रखते है क्यूँ !

ना मुझे कोई उम्मीद है ना उसे कोई आस है
फिर ये अहसास सबसे खास लगता है क्यूँ !

बनाने के लिए मुझे आम से खास मेरे अक्स से कराई,
मेरी पहचान, दिया मुझे आकाश भरने के लिए उड़ान
जो मानू उसे अपना भगवान, तो पागल नादान मुझे कहता है क्यूँ !

                    (4)
 बहुत चालाक है वो मुरली वाला
जो सुनता सबकी अर्जी है पर करता अपनी मर्ज़ी है
जो एक भी पता हिले ना उसकी मर्ज़ी के बिना
फिर कर्मो की ये लीला रचाई ही क्यूँ !

बन राम शिला को अहिल्या बनाया
बन शाम ज़हर को अमृत बनाया
बहुत छलिया हो तुम जो ना करते ऐसे तो
कोई तुम्हे भगवन माने ही क्यूँ !

ये सच है के बंदा खुदा नहीं!
पर  बन्दे में नूर खुदा का है
तो बंदा रब से जुदा है क्यूँ !